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चाँद से छनती धूप..

७ फरवरी २०२२,

मेरी जिंदगी जब जब किसी गहरे अँधेरे गुफा से गुजर रही होती है यकायक ये चाँद नज़र पर छा सा जाता है। वो चाँद, जों भरपूर रौशनी समेटे था मगर फिर अचानक से बादलों के एक जत्थे से घिरा हुआ ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे आकाश का वो नन्हा सा रौशन गोला मिट सा गया हो। जब-जब खुद को बहुत लाचार, बेबस और हालातों के आगे हारा हुआ पाती हूँ, तब-तब मेरी जिंदगी में चाँद प्रेरणा बन कर आता है। वो चाँद कई बार बादलों से पूरी तरह ढक जाता है, कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि आकाश चाँद विहीन हो गया पर हर बार संयम और समय के बदलाव बादलों को बहा ले जाते हैं, और यदि कुछ दृढ़ बच जाता है तो वो है आसमान में चमकता हुआ वो चाँद। ठीक मेरी जिंदगी की तरह।

हालत, समय, परेशानियाँ, जीवन के उतार-चढाव, सब मुझे बचपन से ही आज़माते आए हैं। किसे पता था, कक्षा में तीन-चार विषय में फेल रहने वाली लड़की १०वी में कॉलेज टॉप कर जाएगी? किसे पता था कि गणित से डरने वाली एक औसत लड़की इंजीनियरिंग बिना बैक पेपर के पास कर जाएगी। किसे पता था जिसे भारत में अमूमन एक लड़की के लिए हादसा और सब कुछ खो देने वाला कहा जाने वाला मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न झेलने वाली लड़की, इन सब के बाद भी डिप्लोमा विद हॉनर उत्तीर्ण करेगी।

तब किसे पता था की नवीं कक्षा में श्री सारदा सर के बतलाए एक छोटे से विज्ञान प्रोजेक्ट को पैसे की किल्लत के बीच कबाड़ से सामान जुटा कर पूरा करके एक नन्ही सी चिड़िया पूरे प्रदेश में दूसरे स्थान पर आएगी।

जब लगा था कि सब कुछ खत्म होने को है। जब लगा था कि शायद मैं पाँच-छः हज़ार भी न कमा पाऊँ। उस वक्त सतरह हज़ार दो सौ की नौकरी का इंटरव्यू क्रैक करना मेरे लिए एक सपने जैसा ही था।

बचपन में मैं उड़ना चाहती थी, साइंटिस्ट या पायलट बनना चाहती थी, तब बूआ ने कहा — “जितनी चादर हो उतना ही पैर फैलाओ।” बाल मन पर वो पहला प्रहार था जब मेरा परिचय इस वाक्य से हुआ था — “मुझसे नहीं हो पाएगा।” भारत में ये चलन रहा है कि दूसरों के लिए, तालियाँ सिर्फ तब बजाओ जब उसकी बेहतरी के आगे तुम्हारे पास झुकने का कोई विकल्प ही ना शेष रह जाए। उसके पहले, यदि कोई ऊँचा उठने का ख़ाब देखता हुआ दिख भी जाए तो उसे तब तक कोसते रहो, उसे तब तक नीचे लाने की कोशिश करते रहो जब तक की उसके अंदर का संकल्प, उसके अंदर की दृढ़ता तुम्हारे पैरों तले कुचल कर दम ना तोड़ दे।

मैंने भी ऐसे कई दौर देखें जो अमूमन किसी लड़की को तोड़ देने के लिए, उसे खतम कर देने के लिए काफी होते हैं। पर मुझे उसने और ज्यादा बल मिलता है।

दुनिया सिर्फ उन पहचानों के आगे सिर झुकाती है जिसे वो अपने हताशा भरे तानों से कुचल कर भी मिटा ना पाई हो। लोग इतिहास की नज़ीर में सिर्फ उन्हें जगह देते हैं, जिनके शिद्दत और जूनून की दृढ़ता, इतिहासकारों के कलम को मज़बूर कर देती है उनका नाम अंकित करने के लिए। मुझे नहीं पता कैसे, पर ये मेरे साथ भी होगा। मुझे नहीं पता कैसे पर एक दिन … होगा। २०१६ में जब लगा कि शायद मैं एक नौकरी के भी लायक नहीं, कि शायद मुझसे कुछ भी ना हो पाए, तब भी आसमान में वो चाँद बादलों के बीच घिरा था, और आज भी ये चाँद बादलों के साथ अटखेलियाँ कर रहा है। पर तब भी अँधेरा मात्र भ्रम था, क्षणिक था। और आज भी रौशनी बस सिमट गई है, खत्म नहीं हुई। वो क्या कहते हैं आचार्य जी — “आग बुझी मत जान दबी है राख में।”

कपिल देव जी ने कभी संधू से कहा था — “प्लेग्राउंड के बाहर हमारी जिंदगी में बहुत कुछ चलता रहता है पर फील्ड पर, ये जर्सी पहनने के बाद हमारा बस एक ही कर्तव्य होता है — खेलना, और पूरे जी जान से खेलना।”

ये वर्तमान का क्षण मेरे लिए वही प्लेग्राउंड है, और अतीत और भविष्य प्लेग्राउंड के बाहर स्थित वस्तुएँ। और इस वक्त मेरा कर्तव्य है — मात्र खेलना। सामने आने वाले हर समय को एक उचित उत्तर देना। अतीत और भविष्य में खो कर मैं अपने कर्तव्य से बेईमानी नहीं कर सकती।