अवलोकन

तेज रफ़्तार सड़कों पर सरपट भागते गाड़ियों का जत्था ओफिस के सोलहवीं मंजिल से बच्चों के खिलौनों सा मालूम पड़ता है।

जिंदगी धरती की गोद से सैकड़ों फ़ीट ऊपर रेत और शीशे की दीवारों में कैद होकर रह गई है, सूरज को लाज देने वाले सैकड़ों बल्ब दिन में भी दिन की रौशनी को चुनौती देते ऐसे खड़े हैं, मानो कह रहे हों, “देखो मैं हूँ आज का नया सूरज”। कानों में ईयर पिन लगाए लोग लैपटॉप के स्क्रीन को ऐसे निहार रहे हैं जैसे परमात्मा वहीँ बैठा हो। कोई उस स्क्रीन पर अपने दिमाग का सबसे बेहतरीन और उत्कर्ष परिणाम उपजा रहा है, कोई अपने सवालों में उलझा-उलझा वहां कोई जबाब तलाश रहा है, कोई मन ही मन ईरफ़ोन के आवाजों में खुद को भुला देने की बेजोड़ कोशिश कर रहा है। कहने को ये सब सहकर्मी हैं पर कर्म और साथ दोनों ही का मेरा और इनका कुछ खास वास्ता नहीं दिखता।

ओह! साक्षी, तुम इतना क्यों सोचती हो? देखो सब ठीक ही तो है, अच्छे लोग, बढियाँ और विलासिता पूर्ण माहौल, काम में अच्छी चुनौतियाँ, और भला क्या चाहिए तुम्हे? देखो प्रदूषण से बचने के लिए यहां पौधे भी लगाए गए हैं। मुफ्त चाय नाश्ता खेल-कूद के अवसर साथ ही अच्छी मोटी कमाई, बोलो, और भला क्या चाहिए तुम्हे?

हाँ, क्या चाहिए मुझे? ये सवाल बार-बार आज मुझे क्या समझाना चाह रहे हैं? पता नहीं, इतना कह कर मैंने इस प्रश्न से पीछा छुड़ाते हुए आगे देखना चाहा। पर इस जबाब ने आखो पर एक जाल सा बुन दिया, वो जाल अब आगे कुछ और देखने ही नहीं दे रहा है। यहाँ सबको सब पता है, जिंदगी बस बीत रही है जीवन में कुछ भी सार्थक नहीं, समय बहुत ज्यादा-ज्यादा सा मालूम होता है जैसे मानो किसी ने घडी के काटों को जोर से पकड़ रखा हो और आगे जाने की इज़ाज़त जरा रुक रुक कर देता हो। मेरे आस पास सब बहुत खुश और चिंतित दिखाई पड़ते हैं। पर यहाँ एक अजीब सी बेचैनी है, ऊर्जा का एक असीम व्यर्थ जा रहा भण्डार, जवानी की एक विलक्षण आग जिसका काम बस बुजुर्गों के हाथ पैर सेकने भर का रह गया है।

अर्थव्यवस्था चरमरा गई है पर हज़ार-दो हज़ार तो यहाँ दारु के ठेकों को यूँ ही दान कर दिये जाते हैं। देश की धड़कन कहे जाने वाले शहर दिल्ली, जो की चंद मिनटों की दूरी पर स्थित है, वहां शिक्षा के अधिकार की मांग पुलिस की लाठियों से पूरी की जा रही है। छात्र खून से रंगे जा रहे हैं; पर हमारे यहाँ आज टेनिस का मैच चल रहा है लोग हंस रहे हैं और बगल के टीवी स्क्रीन पर आ रहे लहूलुहान छात्रों के चहरे देख कर कह रहे हैं- “इनका कुछ नहीं हो सकता, देखो ये सब करने आए हैं ये यहाँ”।

कोई ठहाके लगा कर हंस रहा है कि ये साले भिखारी, मुफ्त में पढ़ना चाह रहे हैं! तब तक बगल के साहब बोले ये टैक्स देने वालों के पैसे पर पलना चाहते हैं, कोई ये नहीं बता रहा हैं की टेक्नोलॉजी के इस ज़माने में भी कैसे ये साहब अपना टैक्स चुरा ले जाते हैं। झूठे बिल्स लगा कर कैसे हर महीने खुद को आई सी यू में भर्ती करवा कर स्वस्थ बीमा के पैसे भुनाते हैं। पर ये साहब टैक्स के नाम पर ऐसे फूल रहे हैं जैसे पुरे देश के पैसे यही चूकाते हैं।

बड़ा ही अनोखा दृश्य है, कोई बेचैन है, कोई खुश है, कोई मुरझाया हुआ ,कोई चुपचाप आपने ख्यालों में खोया हुआ, कोई बातों में मशगूल, कोई खाबों में, कोई बेहद जिम्मेदार, कोई खुद की नज़र में चालक, कोई थका हुआ, कोई सोया हुआ, कोई पैसे के लिए रोता हुआ, हर तरह के लोग हैं यहाँ। पर सबको एक बात साफ़-साफ़ पता है की इस देश का कुछ नहीं हो सकता। यहाँ कोई संभावना बची ही नहीं है, हाँ ये और बात है की उनकी तरफ से सम्भावना पैदा करने का प्रयास नगण्य रहा है।

आज प्यूष मिश्रा की पंक्ति याद आती है- “जिस कवी की कल्पना में जिंदगी हो प्रेम गीत उस कवि को आज तुम नकार दो”, इतने उथल-पुथल के बिच सबका शाम होते ही झोला उठा कर दफ्तर से ऐसे घर से निकल जाना जैसे की कुछ हुआ ही ना हो, जैसे उनके बस का कुछ हो ही ना, जैसे उनकी जिम्मेदारी माकन मालिक को किराया देने से शुरू होकर रात के खाने के मीठे के साथ समाप्त हो जाती हो।

पर फिर लोग मुझसे पूछते हैं तुमने क्या किया, जो इतना ज्ञान बाँट रही हो, बात जायज़ भी है और जवाव देने योग्य भी, मैंने अपनी सफाई में कहा- मैंने बात की। मैंने लोगों से मिलकर उन्हें उनके आँख-कान खुले रख पाने में मदद की, और अपने परिवेश में हो रहे बदलाव को यूँ ही नहीं जाने दिया, उसे चर्चा का विषय बनाया क्योंकि जब तक बात हम करेंगे नहीं तब तक बात बनाने वाले हमें बनाते रहेंगे। सच और झूठ के बिच बस तर्कों और शब्दों के हेरफेर का फासला होता है।

जो कहते हैं हम कुछ नहीं कर सकते, उनसे मैं बस इतना पूछना चाहूंगी, क्या आप बात भी नहीं कर सकते? क्या आपका खून इस कदर दारू बन चूका है की उसे नशे के अलावा और कोई नहीं खौला सकता। विदेश जाने के अरमानों ने आपकी आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा” बिलकुल भूल गए आप? मर गया संविधान? मर गई मानवता? मर गई एकता अखंडता? मर गया देश प्रेम? देश को अच्छे पढ़े लिखे लोग चाहिए विदेशों में बैठे एन आर आई नहीं। कुछ कर्ज याद हो इस माटी का तो इन मुद्दों को अपने दिनचर्या का हिस्सा बनाइये बात करिये ट्विटर फेसबुक इंस्टा ये सब सामाजिक समूह हैं बस अतरंगी फोटोज का जमगढ़ नहीं।

मरते लोकतंत्र को आपके आवाज की जरुरत है। क्योंकि आवाज से सवाल खड़ा होता है और सवाल खड़े होते हैं तो कुर्सी को जबाबदेह होना पड़ता है। लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर की लकीर बस इतनी सी ही है। बाकि तो सारी सुविधाएं दोनों ओर एक जैसी हैं।

यदि यहाँ रह कर हमने बदलाव की उम्मीद खो दी तो हम मर चुके हैं, हमने समझौता करने की आदत पाल ली है और ये समझौता गले में पड़े उस पट्टे की तरह है जिसकी रस्सी सरकार के हाथ में है। बदलाव संभव है और आपके पास अवसर है उस बदलाव का भागीदार और उसका साक्षी होने का, इसे ऐसे मत जाने दें। और यदि पाएं की आपके किये बदलाव नहीं हो रहा तब भी चुप चाप बैठे-बैठे मर जाने से बेहतर है अथक प्रयास में समय को स्वाहा करना। आपका समय तो वैसे भी ज़ाया ही जा रहा है?

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